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नि॒युत्वा॑न्वाय॒वा ग॑ह्य॒यं शु॒क्रो अ॑यामि ते। गन्ता॑सि सुन्व॒तो गृ॒हम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

niyutvān vāyav ā gahy ayaṁ śukro ayāmi te | gantāsi sunvato gṛham ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नि॒युत्वा॑न्। वा॒यो॒ इति॑। आ। ग॒हि॒। अ॒यम्। शु॒क्रः। अ॒या॒मि॒। ते॒। गन्ता॑। अ॒सि॒। सु॒न्व॒तः। गृ॒हम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:41» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:7» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वायो) पवन के समान वर्त्तमान विद्वान् ! जिस कारण आप (शुक्रः) अज्ञानताओं को सुखानेवाले होते हुए (सुन्वतः) ओषधियों के रस निकालनेवाले के (गृहम्) घर (गन्ता) जानेवाले (असि) हैं इस कारण (नियुत्वान्) आत्मा से नियमयुक्त जितेन्द्रिय होते हुए (आ,गहि) आओ जैसे (अयम्) यह वायु नियमयुक्त सर्वत्र जानेवाला है, वैसे मैं (ते) आपके घर को (अयामि) प्राप्त होता हूँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे पवन नियम से सर्वत्र जाते हैं, वैसे नियमयुक्त कर्मों को कर सुखों को प्राप्त होना चाहिये ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे वायो यतस्त्वं शुक्रः सन् सुन्वतो गृहं गन्तासि तस्मान्नियुत्वान् सन्नागहि। यथाऽयं वायुर्नियुत्वान् सर्वत्र गन्तास्ति तथाऽहं ते गृहमयामि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नियुत्वान्) नियतात्मा संयतेन्द्रियः (वायो) वायुवद्वर्त्तमान (आ) (गहि) आगच्छ (अयम्) (शुक्रः) शोषकः (अयामि) प्राप्नोमि (ते) तव (गन्ता) (असि) (सुन्वतः) अभिषवकर्त्तुः (गृहम्) ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथा वायवो नियमेन सर्वत्र गच्छन्ति तथा नियतानि कर्माणि कृत्वा सुखान्याप्तव्यानि ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा वायू नियमाने सर्वत्र जातो येतो तसे नियमपूर्वक कर्म करून सुख प्राप्त करावे. ॥ २ ॥